काकड आरती
(1)
नारायण, नारायण, नारायण, नारायण ।।
प्रभात हो गया, प्रभात हो गया।
हे प्रभो, नारायण, लक्ष्मीरमण, श्री गिरीवासी व्यंकटेश जागो।
धारोष्ण दूध की चरवी भरी हुई है। दूध और दही को मथकर
उत्तम प्रकार से मक्खन है। हे शेषशायी श्रीहरे, पूर्वदिशा आरक्त
हो गई है। सत्वर उठकर समुद्रमंथन करो ।।1।।
मोगरा, जाई, जुई आदि प्रफुल्लित सुमन सुर सज्जन लाये है।
अरविन्दलोचन, श्रीगोपाल कृष्ण, जागो, उठो, कब तक सोओगे ।।2।।
तुम्हारे सब भक्त आ गये है। उन्होंने तुम्हारी पदरज का
बंदन किया है। प्रातः काल उठकर हाथ में टाळ और वीणा
लेकर, हे आदिकेशव श्री हरे, ये तुम्हारे पुण्यपावन नाम का संकीर्तन
कर रहे है।।3।।
(2)
है सिद्धिविनायक, विद्याप्रदायक, पार्वतीतनय मूषकवाहन, तुम्हारी शरण हूं ।। ध्रू.।।
हे भालनेत्र और नागभूषण शंकर के प्रिय वरद पुत्र, तुम्हारा अंग
कोमल है, तुमने कटिपर हाथ रखा है और कान में कनककुण्डल धारण किये हैं ।। 1 ।।
हे चतुर्बाहो, (गले में) तुमने बड़े-बड़े मोतियों का पदक
धारण किया है, हाथ में स्वर्ण-कंकण, पाश और अंकुश धारण किया है ।।2।।
हे महाकुक्ष, लम्बोदर, तुमने कामको जीत लिया है, गरूडवाहन (विष्णु) का भक्त पुरन्दरविठ्ठल तुम्हारा दास होकर वंदन करता है।।3।।
नारायण, नारायण, नारायण, नारायण ।।
(3)
प्रातः काल में उठकर शीघ्घ्र ही मंदिर चलिये, वहाँ काकड आरती देखने से पातकों की राशियां जल जायेगी | |1| |
हे साधुजन, उठो-उठो, अपना हित साधलो, नरदेह जा रहा
है, पश्चात् भगवान कैसे मिलेंगे? | | 2 | |
सूर्योदय से पहले उठकर विठ्ठल को भली प्रकार देख लें, (विशेषतः) उनके अमोलिक चरण नयनभर देख लें ।।3।।
रुक्मिणीवर ईश्वर निज मंदिर में सोये है, उनको जगाओ : उन पर सत्वर न्यौछावर करो, कहीं किसी की दृष्टि न लग जाय | |4 | |
पाडुरंगराय की काकड़-आरती हो रही है, उनके सामने ढोलदुंदुभि तथा वाजंत्रीका गर्जन हो रहा है ।।5।।
महाद्वार में सिंह-शंख-भेरियों के (समान) नाद हो रहे है। केशवराज ईटपर (खड़े) हैं, और नामदेव उनके चरणों पर वंदन करता है | |6 | |
(4)
गुरू संतकुलका राजा है, गुरू प्राणों की विश्रांति है, त्रैलोक्य में देखें तो भी गुरू के सिवाय दूसरा देव कोई नहीं मिलेगा ।।1।।
गुरू सुख का सागर है, गुरू प्रेम का सागर है, गुरू धैर्य का अचल पर्वत है।।2।।
गुरू सत्य के लिये सहायक होता है, गुरू साधकों की माता है, गुरू भक्तों के घर में दूध देने वाली काम धेनु है ।।3 | |
गुरू भक्ति का भूषण है, गुरू (साधन के लिये) देह से कष्ट करवाता है, गुरू पापों का खंडन करके हर प्रकार से (भक्तों का) रक्षण करता है।।4।।
गुरू वैराग्य का मूल है, गुरू केवल परब्रह्म है, गुरू लिंगदेह की ग्रन्थि तत्काल खोल देता है। ।5।।
गुरू (नेत्रों में) ज्ञानांजन डालता है, गुरू निजधन बताता है, गुरू सौभाग्य देकर स्वात्मबोध का रक्षण करता है | |6 | |
इस कायारूपी काशी क्षेत्र में हमको गुरू ने तारक मंत्र दिया बापरखुमादेवीवर (ज्ञानदेव) कहते हैं कि हमारा मन ध्यान में लग गया | |7 | |
(5)
सद्भागय का फल मैंने पाया, मैं संसार में धन्य हो गया। सद्गुरू मिल गये, उन्होंने (मुझे) हाथ से धर लिया और पश्चिम मार्ग से लेजाकर त्रिकुटि में आत्मा का निर्धार करवाया, वहां मैंने पंढरी देखली ।।1।।
वह सुख मैं कैसे कहूं; वाणी में नहीं आता है। आरती करने से मेरा अहंभाव चला गया ।। ध्रु. ।|
मंदिर में आते ही देहभाव लुप्त हुआ, मन उन्मन हो गया, बद्धता का नाम ही नहीं रहा। वासना अस्त हुई। शब्द कुंठित होने से (साधन की) निःशब्दावस्था आ गई। निजरूप देखते ही (चित्त) तटस्थ हो गया । ।2।।
हे मुक्ताबाई, तीन गुणों की बत्ती प्रज्वलित हो गई, किन्तु आश्चर्य यह है कि (इसके साथ) स्वयं ज्योति का नाश नहीं होता। उस पर लक्ष देते ही पलक हिलना भी विसर गये और मन वहाँ से अलग ही नहीं होता, दिनरात का पता नहीं चलता है।।3।।
विठ्ठल की आरती से मेरे अंतर में पूर्णतया उजाला हो गया, (बाहर भी) वह प्रकाश इतना बढ़ा कि आकाश में भी नहीं समाया, उस तेज में सूर्य-चन्द्र के तेज का लोप हो गया। उसी समय अनेक दिव्य वाद्यों के अनाहत बजने का घोष हो गया | |4 | |
ब्रह्मानन्द सागर में प्रेम से मग्न हो गया। महान् सुख प्राप्त हुआ, वह वाणी से कहने में नहीं आता है। सद्गुरू के साथ ऐसी आरती की। निवृत्तिनाथ कहते हैं कि वृत्ति आनंद में विलीन हो गई ।।5।।
विठ्ठल, विठ्ठल, विठ्ठल, विठ्ठल ।
पुंडलीक वरदा हरि विठ्ठल ।
॥ श्री राम ।।
हे करूणासिन्धो (दयानिधान)! मैं जीवन पर्यन्त आपके अभीष्ट, अदीनमाव, देह की दृढ़ता तथा आपके चरण कमलों में श्रेष्ठ रति के लिये याचना करता हूँ।
मैं अनादि (Beginningless) तथा अनन्त (Infinite) कालों में आपका भृत्य (सेवक, दास) रहा हूँ। आप मेरे प्रभु (स्वामी) है। आप चाहे तुष्ट (प्रसन्न) हो अथवा रुष्ट (क्रुद्ध), आपके बिना मेरी गति (शरण) नहीं है।
हे दयासिन्धो (करूणानिधान)! आप मुझ पर प्रसन्न (तुष्ट) है, अतः मेरी रक्षा के लिये अन्यों से क्या प्रयोजन? दयासिन्धो! यदि आप मुझ पर रूष्ट (क्रुद्ध) है, तो भी मेरी रक्षा के लिये अन्यों से क्या प्रयोजन?
इस भूतल पर दोषों के प्रति सहिष्णुता में आपके समान कोई नहीं है। हे देवेश (भाग्य के अधिष्ठाता)! मेरे समान कृतघ्न (अकृतज्ञ, Ungrateful) तथा ठग भी कोई नहीं है।
हे अच्युत (च्युतिरहित, अनश्वर)! यह बतावें, समस्त शक्तियों से सम्पन्न ईश के लिये क्या असाध्य है? मेरा अभीष्ट (Desire) कितना सा है? उसकी पूर्ति में इतना विलम्ब क्यों?
यदि कृपायुक्त जगत्स्वामी के भी निर्दय होने की सम्भावना हो, तो निज माता के द्वारा विष प्रदान करने पर हमारी क्या गति होगी?
एक आप ही जगत के रक्षक, दाता, ज्ञाता और दयायुक्त हैं। आपके बिना कौन व्यक्ति हमारे मनोरथ को पूर्ण करने वाला है?
“आप पीड़ित के बन्धु हैं” यह जान कर मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी अच्छी तरह से रक्षा करें अथवा अपने शाश्वत यश को (कि आप शरणागतों की रक्षा करते हैं) हमेशा के लिए त्याग दें।
हे दीनबन्धों, दयासिन्धो, उत्तमहृदय वाले बन्धो, जगत के स्वामी तथा करुणानिधान! संसार रूपी सागर में मुझ डूबे हुए का उद्धार करें।
साधुजन सभी निर्गुण (गुणहीन) व्यक्तियों के प्रति भी दया करते हैं। चन्द्रमा चाण्डाल के घर में भी अपनी चांदनी (चन्द्रिका) को समेटता नहीं है।
हे लक्ष्मीपते, दयानिधान! मेरे प्रति प्रसन्न होवें। आप पुनः पुनः प्रसन्न होवें और वरप्रदायक होवें।