निंबरगी संप्रदाय

विलियम जेम्स ने धर्म की व्यापक परिभाषा को ऐसी छिपी हुयी विश्वास पद्धति बताया जिसके अधीन अस्तित्व है। उन्होंने एक व्यक्ति की व्यक्तिगत एवं अंतर्भूतियां, कार्य, और उन भावनाएं पर भी जोर दिया जिनको वे पवित्र और दैवीय मानते हैं। इसका सारांश निम्बरगी संप्रदाय में परिलक्षित होता है जो पथ यह दिखाता है वह सबके लिए खुला है – बिना जाति, नस्ल, लिंग, भाषा, सामाजिक और पृष्ठभूमि के महत्व सिर्फ सत्य के लिए सच्ची शोध का है। अपनी परमात्मा के रूप को पहचानकर उसके आध्यात्मिक ऋण को चुकाने की अभिलाषा का है क्योंकि मानवता का स्वरुप ईश्वरीय छवि के अनुसार ही है।

जो भी व्यक्ति इस अंतरयात्रा के लिए प्रयाण करना चाहते है वे यदि  घूसखोरी एवं  व्यभिचार का त्याग कर पूर्ण रूप से, गुरुप्रदत  ईश्वर के नाम पर पूरा ध्यान लगाने का संकल्प लें तो वे अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं।

प्रोफेसर आर. डी. रानडे निम्बरगी संप्रदाय की उस आध्यात्मिक शाखा से आते हैं जिसकी उत्पत्ति नाथ सम्परदाय में हुई और जिसके नवीनतम और प्रासंगिक प्रतिपादक महाराष्ट्र के सतारा जिले के रेवणगिरि के रेवणसिद्ध और कोल्हापुर से बारह मील दूर सिद्धगिरि के एक बहुत महान संत काडसिद्ध थे।

इस संप्रदाय के प्रथम ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं निम्बरगी के नारायणराव महाराज उर्फ़ निम्बरगी महाराज। उनका आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश  स्वामी मुप्पिनामुनि द्वारा नाममंत्र का अनुग्रह दे कर किया और उन्हें उस नाममंत्र पर ध्यान करने का निर्देश दिया। निम्बरगी महाराज के सबसे मुख्य शिष्यों में एक उमदि के भाऊसाहब महाराज थे जो संप्रदाय के  प्रचार प्रसार में प्रमुख भूमिका निभाते थे। भाऊसाहब महाराज दोनों, अम्बुराव महाराज एवं गुरुदेव आर. डी. रानडे के आध्यात्मिक गुरु थे। इस परंपरा की विशेषता इसका आध्यात्मिक अनुशासन एवं गहराई है ।

  • एक व्यक्ति दूसरों को अनुगृहीत करने के लिए तभी तैयार माना जाता है जब ध्यान के उत्कर्ष पर ईश्वरीय नाम उसे स्वतः आते हैं। 
  • ऐसा व्यक्ति उन  आध्यात्मिक शक्तियों का भी स्वामी होना चाहिए जिससे वह आत्मा एवं भौतिक शरीर को अलग देख सके ।  परंपरा आध्यात्मिक गुरुत्वाकर्षण  के सिद्धांत को बताती है जहाँ गुरु की आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि और ईश्वरप्राप्ति स्वभावतः एवं सहजता से उनके शिष्यों को मिलती हैं यदि  शिष्य गण उसी गुरुगम्य पथ पर समर्पण भाव से चलते हैं। 
  • किसी साधक का अंतिम लक्ष्य है दिव्य प्रकाश को प्राप्त हो जाना जहाँ वे अपने वास्तविक स्वयं को देख सकें — अद्भुत दैवीय प्रकाश में दैदीप्यमान।

इस अंतिम आध्यात्मिक प्राप्ति की सार्वभौमिकता साक्षात्कारवाद की पूर्वी और पाश्चात्य दोनों परम्परांओ को पुष्ट करती है। उदाहरणार्थ, रहस्यवादी रुइसबरोएक ने लिखा है कि मननशील आत्माएं एक आतंरिक प्रकाश के माध्यम से रूपांतरित होती हैं और उसी प्रकाश से मिल जाती हैं जो उन्हें देखती हैं और जिनको वे देखती हैं। ये साधक उन शाश्वत दैवीय छवि की ओर खींचे चले जाते हैं जिनकी समानता में उनको उत्पन्न किया गया और वे ईश्वर और बाकी सभी कृतियों को दिव्य प्रकाश से दैदीप्यमान एक ही दृष्टि से देखते हैं।

Spiritual Lineage

रेवणसिद्ध/कड्डसिद्ध  महाराज  निम्बार्गी महाराज भाऊसाहब महाराज अंबूराव महाराज प्रो. आर. डी. रानाडे डॉ. वी. एच. दाते  मालती बाई वी. दाते

Spiritual Lineage

Revansiddh/Kadsiddh Maharaj Nimbargi Maharaj Bhausahib Maharaj Amburao Maharaj R.D. Ranade Dr. V.H. Date

सद्गुरु श्री निंबरगी महाराज

NImbargi-Maharaj-Samadhi

सद्गुरु श्री निंबर्गी महाराज की समाधि – देवर निंबर्गी (कर्नाटक)

सद्गुरु श्री गुरुलिंगजंगम महाराज के नाम से भी विख्यात

जन्म: सोलापुर, 9 अप्रैल 1789 AD; 1712
अनुग्रह: 1809-1814
निर्वाण: 29 मार्च 1815 AD, चैत्र श 12, 1807

गहरी साधना एवं उपासना की आध्यात्मिक परम्परा में विश्वास करने वाली निम्बरगी संप्रदाय के संस्थापक संत थे श्री नारायणराव भाऊसाहब, उर्फ़ श्री गुरुलिंगजंगम महाराज या श्री निम्बरगी महाराज। लिंगायत समुदाय, नीलावनी उप जाति, मिसलकर कुलनाम के श्री निम्बरगी महाराज महाराष्ट्र के सोलापुर में जन्में थे और कर्नाटक के बीजापुर जिले में देवर निम्बरगी गांव में वे पले बढे।

युवावस्था में होली खेलने के कारण अपने पिता द्वारा डांटे जाने पर वे घर छोड़ कर पंढरपुर नामक प्रसिद्ध तीर्थस्थल की ओर चल पड़े। काफी कड़ी तपस्या के बाद भगवन विट्ठल ने उन्हें स्वप्न दर्शन दिया और आदेश दिया कि वे सिद्धगिरी की ओर प्रस्थान करें जहाँ उनकी भेंट काडसिद्ध वंश के योगी मुप्पीनमुनि से हुयी जिन्होंने निम्बरगी महाराज को एक दैवीय मंत्र से अनुगृहीत किया और गहरी साधना करने के लिए निर्देश दिया।

यद्यपि वे प्रारंभ में छः वर्षों तक अपनी आध्यात्मिक कर्तव्यों के प्रति उदासीन रहे लेकिन उनके गुरु के एक प्रवास ने उनकी प्रतिबद्धता को पुनः जीवित कर दिया। उन्होंने कपडा रंगने की अपनी नौकरी को छोड़ कर स्वयं को ध्यान के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया। अगले 36 वर्षों तक उन्होंने कड़ी नाम साधना का अभ्यास किया जिस से उनकी आध्यात्मिक शक्ति एवं अनुभव इतना गहरा हुआ की वे सद्गुरु बन गए।

जीवन के अंतिम 28 वर्ष में निम्बरगी महाराज ने शिष्यों को आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर रहने की शिक्षा दी. उन्होंने संत रामदास कृत दसबोध की विवेचना भी की । कालांतर में उनकी वचनों का संकलन बोध-सुधा के नाम से हुआ। उनके प्रमुख अनुयायियों में से प्रमुख थे रघुनाथप्रिय साधु महाराज जिन्होंने बाद में श्री वेंकटेश खंडेराव देशपांडे, उर्फ़ उमदी के श्री सद्गुरु भाऊसाहब महाराज, को भी उपदेश दिया और आध्यात्मिक वंशावली को आगे बढ़ाया।

श्री निम्बरगी महाराज को 29 मार्च 1885 को 95 वर्ष की आयु में सद्गति की प्राप्ति हुयी। आज भी उनकी समाधि उनके अनुयायियों के लिए उपासना का एक तीर्थस्थल है। उनकी प्रशस्ति में गुरुदेव रानडे ने उनकी तुलना उस बकुल वृक्ष से की जो आध्यात्मिक सुगंध से आच्छादित है। गुमनाम आध्यात्मिक नायकों के बारे में स्वामी विवेकानंद के शब्द उन पर बिलकुल सटीक बैठते हैं।

सद्गुरु श्री भाऊसाहब महाराज

सद्गुरु श्री भाऊसाहब महाराज (उमादिकर) और निंबरगी संप्रदाय

जन्म: उमादि, 1843; चैत्र श 9, रामनवमी, शके 1765
अनुग्रह: 1858
निर्याण: 29 जनवरी, 1914; गुरूवार, माघ, शके 1835

सद्गुरु श्री भाऊसाहिब महाराज (उमादिकर) के नाम से प्रख्यात सद्गुरु श्री वेंकटेश खांडेराव देशपांडे सद्गुरु श्री निंबरगी महाराज द्वारा स्थापित निंबरगी संप्रदाय के एक प्रमुख संत थे।

प्रारंभिक जीवन और भक्ति
महाराष्ट्र के उमाडी गांव में 1843 में रामनवमी के पावन दिन पर जन्मे वेंकटेश (भौराई) देशपांडे अपनी बुद्धिमत्ता और भक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। वह उमदी के बलभीम मंदिर जो एक सिद्ध स्थान है जहाँ सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, में भगवान हनुमान की पूजा करते थे। जब श्री निंबर्गी महाराज के शिष्य श्री रघुनाथप्रिय साधु महाराज (साधु बुआ) ने उनको पूजा करते समय भक्ति में लीन देखा, तो उन्हें निंबर्गी महाराज की शिक्षा से परिचित कराया। 14 वर्ष की आयु में, भाऊसाहेब महाराज को दीक्षा दी और वे प्रदत्त दिव्य नाम पर नियमित ध्यान करने लगे।

आध्यात्मिक अभ्यास और विरासत
28 वर्षों तक भाऊसाहब महाराज ने सांसारिक कर्तव्यों के साथ आध्यात्मिक अभ्यास को संतुलित करते हुए प्रतिदिन गहन ध्यान किया। श्री निम्बरगी महाराज के देहावसान के बाद, उन्होंने अपने ध्यान को और तीव्र किया, और “अद्वैत सिद्धि” – आत्मानुभव की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त किया।

उन्होंने 1885 से 1903 तक उमाडी में श्रवण साधन सप्ताह (आध्यात्मिक समागम) का आयोजन किया, जहाँ कई शिष्य सुबह से दोपहर तक चलने वाले ध्यान सत्रों में शामिल हुए।

इसके बाद 18 वर्षों तक, उन्होंने अपने घर में विशेष रूप से निर्मित दो फुट की जगह पर खड़े होकर रात में ध्यान किया, और सर्वोच्च आध्यात्मिक एकता प्राप्त की। भाऊसाहब महाराज कई शिष्यों के साथ एक श्रद्धेय सद्गुरु बन गए और अपने गुरु के लिए समाधि मंदिर बनाने की उनकी इच्छा पूरी की।

इंचगिरी में आध्यात्मिक केंद्र
भाऊसाहब महाराज ने आध्यात्मिक केंद्र को इंचगिरी में स्थानांतरित कर दिया, जहाँ श्री निम्बरगी महाराज के लिए एक और समाधि मंदिर बनाया गया। एक दिव्य संदेश आया था कि वे महाराष्ट्र और कर्नाटक में भक्ति का प्रसार करें जो उन्होंने किया, और दिव्य निर्देशानुसार बीजापुर, जामखंडी और सोलापुर जैसे स्थानों पर घोड़े पर यात्रा की। 29 जनवरी 1914 को 71 वर्ष की आयु में, अपने पीछे आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक शिक्षाओं की एक समृद्ध विरासत छोड़, उन्होंने देह त्याग किया।

सद्गुरु भाऊसाहब महाराज की शिक्षाएँ

  • दीक्षा के बाद दिए गए दिव्य नाम (नाम) का ध्यान करें; यह परम सत्य है और आत्मा के प्रकाश का मार्ग है।
  • दैनिक जीवन में नाम को भूलने से भ्रम पैदा होता है।
  • आध्यात्मिक प्रगति के लिए आत्म-ज्ञान की प्रबल इच्छा आवश्यक है।
  • सच्ची भक्ति के लिए सांसारिक आसक्तियों से विरक्ति की आवश्यकता होती है।
  • हृदय का मूल मन है, जहाँ ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।

आज, इंचगिरी मंदिर परिसर में सद्गुरु श्री निम्बरगी महाराज, सद्गुरु भाऊसाहब महाराज और सद्गुरु श्री अम्बुराव महाराज की दिव्य समाधियाँ हैं।

भाऊसाहब महाराज के प्रमुख शिष्यों में सद्गुरु श्री अम्बुराव महाराज, श्रीमती शिवलिंगवा अक्का और सद्गुरु श्री गुरुदेव रानाडे शामिल हैं।

Bhausaheb-Maharaj

सद्गुरु श्री भाऊसाहब महाराज

सद्गुरु श्री अंबूराव महाराज

Amburao-Maharaj

सद्गुरु श्री अंबूराव महाराज

 

परम पूज्य सद्गुरु श्री भाऊसाहब महाराज उमडीकर के शिष्य

जन्म: जिग्जीवनी, 21 सितम्बर, 1857; सोमवार, भाद्रपद श 9, शके 1779
अनुग्रह: अप्रैल 1892: चैत्र श 15, शक 1814; दोपहर 2 बजे: सिद्धेशर मंदिर में
निर्याण: 22 दिसम्बर, 1933; शुक्रवार, पौष श 6, शके 1855

सद्गुरु श्री अम्बुराव महाराज (बाबा) – निंबरगी सम्प्रदाय के मार्गदर्शक
प्यार से बाबा के नाम से प्रख्यात, सद्गुरु श्री अंबुराव महाराज एक समर्पित शिष्य और आध्यात्मिक मार्गदर्शक थे। इन्होने सद्गुरु श्री भाऊसाहब महाराज (उमादिकर) की विरासत को आगे बढ़ाया। भाऊसाहब महाराज द्वारा दिव्य नाम मंत्र से आशीर्वाद प्राप्त, बाबा के गहन ध्यान और भक्ति ने उन्हें सिद्ध (जागृत संत) बना दिया। भाऊसाहब महाराज के निधन के बाद, अम्बुराव महाराज कई भक्तों के रक्षक और आध्यात्मिक उद्धारकर्ता बन गए, उन्होंने भक्ति का प्रसार किया और कई शिष्यों को दीक्षा दी। वे सद्गुरु श्री गुरुदेव रानडे के गुरु-बंधु (आध्यात्मिक भाई) भी थे।

संक्षिप्त जीवन रेखा
1857 में जिग्जीवानी में एक गरीब स्मार्त ब्राह्मण परिवार में जन्मे, बाबा ने जीवन के शुरुआती दिनों में कई कठिनाइयों का सामना किया, जिसमें उनके माता-पिता और पत्नी को खोना भी शामिल था। उनकी आध्यात्मिक यात्रा एक दिव्य स्वप्न और उमदी के संत, श्री भाऊसाहब महाराज के मार्गदर्शन के बाद शुरू हुई। शुरू में हिचकिचाहटके पश्चात बाबा ने श्री भाऊराव सावलसांग की मध्यस्थता के माध्यम से दीक्षा स्वीकार की और जल्द ही आध्यात्मिकता में उल्लेखनीय प्रगति की। एक उल्लेखनीय घटना बाबा की विनम्रता और श्रद्धा को दर्शाती है जब उन्होंने अपने गुरु के नाम देने के अधिकार पर सवाल उठाने पर उन्हें अपने गुरु के आदेश की पुष्टि करने वाला एक दिव्य दर्शन प्राप्त हुआ।

बाबा एक प्रमुख आध्यात्मिक गुरु बने।उनके कई शिक्षित शिष्य थे, जिनमें प्रो. आर. डी. रानडे भी शामिल थे। नेतृत्व और दीक्षा अधिकार के बारे में संप्रदाय के भीतर मतभेदों के कारण, बाबा ने 1927 में इंचगिरी में एक स्वतंत्र मठ की स्थापना की। उन्होंने अपने गुरु को एक तस्वीर के साथ सम्मानित किया और अपनी आध्यात्मिक वंशावली को अक्षुण्ण रखा। सद्गुरु श्री अम्बुराव महाराज का निधन 22 दिसंबर 1933 को बीजापुर में हुआ। उनकी समाधि इंचगिरी में उनके गुरु के बगल में स्थित है। उनके द्वारा स्थापित मठ का बाद में जीर्णोद्धार किया गया और आज यह एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक केंद्र है।

विरासत
सद्गुरु श्री अम्बुराव महाराज की तुलना अक्सर उनके आध्यात्मिक कद और भक्ति के लिए 16वीं शताब्दी के संत कल्याण रामदास से की जाती है। उनके निधन के बाद, सद्गुरु श्री गुरुदेव रानडे ने दायित्व संभाला और विभिन्न धार्मिक पृष्ठभूमियों के साधकों सहित हजारों लोगों को दीक्षा दी।

आर.वी. श्रीमती. श्री. शिवलिंगव्वा अक्का

परम पूज्य भाऊसाहब महाराज उमडीकर (1867 ई. – 1930 ई.) की शिष्या

श्रीमती शिवलिंगव्वा अक्का – जाट की रहस्यवादी संत
श्रीमती शिवलिंगव्वा अक्का एक पूजनीय साक्षात्कारी महिला और उमदी के सद्गुरु श्री भाऊसाहब महाराज की एक श्रेष्ठ शिष्या थीं। अपने बेटे की दुखद मृत्यु के बाद, उन्होंने अटूट भक्ति के साथ स्वयं को आध्यात्मिक साधना की गहराई में समा दिया। अपने पूर्ण समर्पण के कारण उनको गहन रहस्यमय अवस्थाओं का अनुभव हुआ और मानव जीवन के सर्वोच्च उद्देश्य को पूरा करते हुए ईश्वर से साक्षात्कार हुआ।

आध्यात्मिक श्रेष्ठता के दृष्टिकोण से उनकी तुलना मुक्ताबाई (संत ज्ञानेश्वर की बहन) और मीराबाई जैसी महान संत महिलाओं से की जाती है। कई सांसारिक कष्टों को सहते रहने के उपरांत भी भगवान और अपने सद्गुरु में उनकी आस्था अडिग रही। दृढ़ भक्ति और ध्यान के साथ, उन्होंने कई शिष्यों को पवित्र नाम मंत्र से दीक्षित करके आशीर्वाद दिया।

Rv. Smt.Shri.Shivalingavva Akka

आर.वी. श्रीमती. श्री. शिवलिंगव्वा अक्का

श्री गुरुदेव डॉ. रामचन्द्र दत्तात्रेय रानाडे

Nimbargi Sampradaya R.d.Ranagy

सद्गुरु श्री. गुरुदेव आर. डी. रानाडे

एक दार्शनिक, एक रहस्यमयी संत और एक सद्गुरु

जन्म: जामखिंडी, 3 जुलाई, 1886;
अनुग्रह: 1901; कार्तिक श 14, वैकुण्ठ चतुर्दशी
निर्याण: 6 जून, 1957; गुरूवार, जेष्ठ श 10, गंगादशमी

भारत की भूमि हमेशा अनगिनत संतों और संतों की आध्यात्मिक तपस्या से धन्य एक पवित्र तपो भूमि रही है। सदियों से आध्यात्मिकता के अग्रदूत रहे ये संत पुरे विश्व में ज्ञान और जागृति फैला रहे हैं। आधुनिक भारत के महान विभूतियों में एक श्री गुरुदेव डॉ. रामचंद्र दत्तात्रेय रानडे एक महान संत, दार्शनिक और विद्वान थे, जिनका जीवन बौद्धिक प्रतिभा के साथ आध्यात्म एवं भक्ति का एक उत्कर्ष उदाहरण था।

प्रारंभिक जीवन और आध्यात्मिक दीक्षा
3 जुलाई 1886 को बीजापुर जिले के जमखंडी में जन्मे डॉ. रानडे अपनी धर्मपरायण माँ के मार्गदर्शन में एक धर्मभीरु परिवार में पले-बढ़े। प्रारंभिक जीवन में उमदी के सद्गुरु श्री भाऊसाहब महाराज से उनकी भेंट ने उन पर गहरा आध्यात्मिक प्रभाव डाला। 1901 में, उन्होंने भाऊसाहब महाराज से दिव्य नाम दीक्षा प्राप्त की, जिसने उनके जीवन में आध्यात्मिक चिंतन का बीज बोया।

अपनी आध्यात्मिक यात्रा के साथ-साथ, रानडे ने शैक्षणिक रूप से भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। उनकी प्रतिभा स्कूल और कॉलेज में और निखरती गयी, जहाँ उन्होंने छात्रवृत्ति और स्वर्ण पदक अर्जित किया। फिर भी, उनकी खोज केवल किताबी नहीं थी; उन्होंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों के लिए बौद्धिक औचित्य की तलाश की। इसने उन्हें पूर्वी और पश्चिमी दोनों दर्शनों का गहराई से अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया।

शैक्षणिक और आध्यात्मिक यात्रा
डॉ. रानडे ने लगभग एक दशक तक पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज और सांगली के विलिंगडन कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। इस दौरान, उन्हें गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ा, जिसने उनकी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि को कुन्द करने के बजाए और गहरा किया और उन्हें आनंद के दुर्लभ अनुभव प्रदान किए। व्यक्तिगत त्रासदियों ने उनकी भक्ति और अभ्यास को और तीव्र कर दिया।

1922 में, एक स्वप्न-दृष्टि से प्रेरित होकर, वे सोलापुर और बीजापुर के बीच एक छोटे से रेलवे स्टेशन निम्बल में बस गए। वहाँ, उन्होंने एक मामूली आश्रम की स्थापना की, जो तब से एक आध्यात्मिक तीर्थ स्थल बन गया है।

डॉ. रानडे एक प्रसिद्ध व्याख्याता थे, जिन्होंने भारत भर के विभिन्न केंद्रों में उपनिषदिक दर्शन, भगवद गीता, वेदांत, हिंदी साक्षात्कारवाद और कर्नाटक साक्षात्कारवाद पर व्याख्यान श्रृंखलाएँ दीं। उनके व्याख्यानों को कालांतर में महत्वपूर्ण दार्शनिक और आध्यात्मिक कार्यों में संकलित किया गया, जिनमें से कई पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुए।

उनकी पहली प्रमुख प्रकाशन, ए कंस्ट्रक्टिव सर्वे ऑफ़ उपनिषदिक फिलॉसफी (1926) ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनकी नियुक्ति हुई। वहां उन्होंने दर्शनशास्त्र विभाग के प्राध्यापक और प्रमुख, कला संकाय के डीन और अंततः कुलपति के रूप में कार्य किया।

आध्यात्मिक दर्शन और विरासत
श्री गुरुदेव रानडे का जीवन ईश्वर-केंद्रित था – दिव्य आनंद और आध्यात्मिक ज्ञान में डूबा हुआ। उन्होंने रहस्यवादी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जो दार्शनिक हो भी सकता है और नहीं भी; हालाँकि, एक दार्शनिक-रहस्यवादी में अनुभव और बुद्धि दोनों के माध्यम से मानवता को ऊपर उठाने की शक्ति होती है।

उनका सपना ईश्वर के मार्ग पर एक व्यापक कार्य बनाना था, जो पूर्वी और पश्चिमी दर्शन और धर्मों को जोड़ता हो। हालाँकि 6 जून 1957 को उनके असामयिक निधन ने इस परियोजना को पूरा होने से रोक दिया, लेकिन उनके लेखन और शिक्षाएँ अनगिनत साधकों को प्रेरित करती हैं।

श्री गुरुदेव रानडे का आध्यात्मिक प्रभाव दो प्राथमिक केंद्रों – उत्तर भारत, विशेष रूप से इलाहाबाद और दक्षिण भारत के निम्बल से निकला। ये स्थान आध्यात्मिक धाराओं के संगम बन गए जिन्होंने कई आत्माओं को परमात्मा की ओर सम्मुख किया।

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