माताजी मालती बाई वि. दाते

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माताजी (मालती बाई वि. दाते)

आरम्भ में जो परमार्थ एक स्फुलिंग मात्र था उसी ने आगे चलकर महान् अग्नि का रूप धारण कर हमारे पूरे जीवन को व्याप्त कर लिया  जिससे ‘यह परमार्थ है और यह प्रपंच’ ऐसा कहना भी संभव नहीं रहा। ………  परमार्थ ने प्रपंच का  ग्रास  कर लिया था और तब केवल  परमार्थ  खरे सोने के समान देदीप्यमान…” ये शब्द  जिनके है उनकी प्रापंचिक एवं पारमार्थिक जीवन की संक्षिप्त रूप रेखा प्रस्तुत करना लगभग असंभव ही है परन्तु फिर भी इस ओर प्रयास अवश्य किया जाना चाहिए। जिससे पथ पर चलने के लिए आरम्भ से आखिर तक प्रेरणा प्राप्त होती रहे। उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त वर्णित उद्धृत वचन पूज्या माताजी महाराज, माताजी बाई वि. दाते के हैं। माताजी के पूरे जीवन में एक विशिष्ट निरालापन ही था। उनके जीवन के प्रारम्भ से लेकर अन्तिम क्षणों तक घटित घटनाक्रम में उनके अनूठेपन की छाप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। 

एक धन-सम्पन्न परिवार में जन्म लेने के बावजूद स्वयं के जीवन-साथी के चयन के बारे में अपने उग्र स्वभाव के धनान्ध पिता को माताजी के अलावा और कौन यह कह सकता है कि- “मैंने सुना है आप मेरे लिए अनपढ़ परन्तु बहुत श्रीमन्त लड़का देख रहे हैं। मैं ऐसे लड़के के साथ शादी करने को तैयार नहीं होऊंगी। लड़का पढ़ा-लिखा होना चाहिए फिर उसके पास भले ही ताम्बे का एक पैसा भी नहीं हो, मैं आनन्द से उसके साथ शादी करने को तैयार होऊंगी।” उक्त गोष्टी सन् 1923 की है उस जमाने में एक किशोरावस्था की लड़की द्वारा धन-दौलत की की चकाचौंध से भरे सुखमय जीवन को ठुकराकर अभावग्रस्त निर्धन परन्तु शिक्षित जीवन-साथी के वरण का निर्णय लेना अद्भुत है। जीवन के प्रारम्भ में ही बेलाग स्पष्टवादिता, दृढ़ निर्मिकता और परिपक्व विवेकशीलता का ऐसा अनूठा दृष्टान्त और कहां देखने को मिलेगा? आत्म- सम्मान से परिपुष्ट स्वाभिमान, निर्मिकता से परिपुष्ट स्पष्टवादिता और दूरदर्शिता से परिपुष्ट विवेकशीलता माताजी के जीवन के हर मोड़ पर सहज रूप में दर्शनीय है। इन विशिष्टताओं के कारण ही उनका व्यक्तित्व निराला बन जाता है। 

माताजी के जीवन में गुरु-कृपा का अवतरण भी अपने दंग से निराला ही था। जब उनके पिताजी ने पढ़ा-लिखा परन्तु निर्धन लड़का ढूंढ़ने का प्रयत्न प्रारम्भ किया तब जो सांसारिक संयोग और देवयोग बना, बस वहीं से उन पर गुरुकृपा वृष्टि प्रारम्भ हो गई थी। माताजी के पिताश्री ने एक पत्र इस संबंध में पटना हाईकोर्ट के जज को लिखा जो माताजी के मामा थे। माताजी की मामी सुप्रसिद्ध सत्यवादी नेता गोपालकृष्ण गोखले की पुत्री थी जो रानडे साहब की विद्यार्थी रह चुकी थी। माताजी की मामी ने इस प्रसंग में पढ़े लिखे होशियार परन्तु गरीब लड़के का नाम बताने के लिए रानडे साहब को एक पत्र लिखा तब रानडे साहब ने श्री विनायक हरि दाते का नाम प्रस्तावित किया। गुरुदेव के प्रस्ताव को शिरोधार्य कर लिया गया और फिर सांसारिक औपचारिकताओं के पूरा हो जाने पर 3 फरवरी, 1925 को मालती बाई (माताजी) का विवाह श्री विनायक हरि दाते के साथ विधिवत सम्पन्न हो गया। इस प्रकार से माताजी के गृहस्थ जीवन का शुभारम्भ ही गुरु-कृपा से हुआ था इसलिए उनका प्रपंच शनै:-शनै: परमार्थमय बनता चला गया। इस रूपान्तरण में माताजी स्वयं की विचारशीलता और तदनुरूप प्रयत्नशीलता की भी अहम् भूमिका रही है। इस विवाह के लगभाग सात वर्ष बाद जमखण्डी में सद्गुरुनाथ श्री अम्बुराव महाराज ने अक्टूबर 1932 में माताजी को नाम-मंत्र दिया था। उस समय उनको उन्होंने कहा था कि- “लेडीज को सारा घर का काम काज करना पड़ता है इसलिए काम तो जरूर करना परन्तु नाम भूलना नहीं। काम करते करते नाम स्मरण करना।” समर्थ सद्गुरु की इस आज्ञा का माताजी ने आजीवन पूरी निष्ठा से पालन किया। माताजी की इसी निष्ठापूर्ण प्रयत्नशीलता की विशेषता ने ही उनके जीवन को शनै:-शनै: निराला बना दिया। माताजी ने आते-जाते, काम-करते, उठते-बैठते नाम-स्मरण करते रहने का दृढ़ नियम बना लिया। जिसका अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक निरपवाद रूप से भावपूर्वक पालन किया।

पूर्ण निर्लोभता

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माताजी (मालती बाई वि. दाते)

माताजी के जीवन की एक प्रमुख विशेषता थी उनकी निर्लोभ वृत्ति। सामान्य तौर पर महिलाओं में लोभ-लालसा कुछ अधिक ही होती है जबकि निःस्वार्थ भाव माताजी की प्रकृति की पहचान थी। बहुत से लोग निःस्वार्थता का बनावटी बाना धारण करते हैं परन्तु माताजी तो स्वभाव से ही निर्लोभ थीं। महिलाओं को प्रायः गहनों-आभूषणों का खूब लोभ रहता है, शौक रहता है। इस सामान्य तथ्य को सभी लोग जानते हैं इसके लिए कितने ही जायज और नाजायज कदम उठा लेने के किस्से प्राचीन और अर्वाचीन सभी कालों में मानव-जीवन को झकझोरते रहे हैं। इस साधारण-प्रवाह से माताजी की प्रकृति सर्वथा भिन्न थी। इस प्रसंग में उनके जीवन के एक संस्मरण का यहाँ उल्लेख करना महत्त्वपूर्ण होगा। उनकी माँ बहुत बीमार थीं। लंबे समय से माताजी अपनी माँ की सेवा कर रही थी। उस समय तक माताजी का विवाह हो चुका था और उनकी उम्र 20 वर्ष की थी। एक दिन उनकी बीमार माँ ने तिजोरी से सारे गहने निकालकर उनको पहनने के लिए कहा। ऐसे अवसर पर कोई अन्य युवती होती तो खुशी-खुशी उन सोने के सारे गहनों को धारण करके माँ को दिखा देती यहाँ तक कि गली-मोहल्ले-गाँव में भी सबसे सबको गर्व से फूलकर अवश्य दिखाने चली जाती। इतना ही नहीं अपनी धनाढ्य माँ को बहला-फुसलाकर कुछ गहने स्वयं के लिए मांग लेती तो भी आश्चर्य का विषय नहीं होता। माताजी ने जो उत्तर उस युवावस्था में भी अपनी माँ को दिया वह उनकी निर्लोभता का बेजोड़ कीर्तिमान है – “मैं तेरे गहने धारण नहीं करूँगी, उनका स्पर्श भी मेरे शरीर पर होने नहीं दूँगी। यदि तेरे गहने तुझे देखने की इच्छा हो तो मैं तिजोरी से निकालकर थाली में रखकर लाती हूँ, तू सब देख ले और मैंने वैसा किया भी।” माताजी के जीवन में जब-जब भी प्रलोभन के अवसर आए तब-तब ही उनकी निर्लोभ वृत्ति एवं दूरदर्शिता की प्रखर तेजस्विता के दर्शन होते हैं। निर्लोभिता पारमार्थिक प्रगति की प्रमुख आधार-शिला होती है। इस संबंध में दाते महाराज ने श्री अम्बुराव महाराज के उपदेश-वचनों को निम्नांकित रूप में प्रस्तुत किया है – “The aspirants should bid good-bye to lust and greed, otherwise there would be no meditation.” लोभ-लालच का सर्वथैव त्याग भक्ति-मार्ग में उन्नति के लिए आवश्यक होता है। माताजी की प्रकृति कितनी निर्लोभ थी और उनका दृष्टिकोण कितना पारमार्थिक था इसके लिए उनके जीवन के एक महत्वपूर्ण वृत्तान्त का यहाँ पर उल्लेख करना उत्तम रहेगा। एक बार किसी प्रसंगवश दाते साहब ने श्रीमती डालमिया हेतु एक भाषण लिखकर तैयार किया था। वह भाषण लिखकर तैयार किया था। वह पूर्ण सफल तथा प्रभावशाली रहा जिससे अभिभूत होकर भारत के सुप्रसिद्ध उद्योगपति डालमिया ने दाते साहब को अपने निजी सचिव का पद संभालन का विशेष आग्रह किया। यह प्रलाोभन भी दिया कि उच्चतम वेतन के साथ बंगला, कार तथा अमेरिका में आपके बच्चों के शिक्षण की श्रेष्ठतम व्यवस्था कर दी जाएगी। दाते साहब की तो इच्छा हो गई थी कि मैंने तो अत्यन्त निर्धन अवस्था में बहुत कष्ट उठाकर शिक्षा प्राप्त की परन्तु अब मेरे बच्चे तो बड़े ठाट-बाट से अमेरिका में श्रेष्ठतम शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। ऐसे सुनहरे अवसर पर किसी भी महिला द्वारा अपने पति को शीघ्र से शीघ्र इतने बड़े उद्योगपति का निजी सचीव बन जाने के लिए विवश कर देना कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी परन्तु इतने बड़े मन-लुभावने प्रलोभन को भी माताजी ने जिस प्रकार से ठुकरा दिया वह स्तुत्य एवं उन्हीं के शब्दों ने दर्शनीय है-“ आपको रानडे साहब ने जोधपुर में काम करने के लिए भेजा है, डालमिया के वैभवपूर्ण जीवन के प्रति आकर्षित होने के लिए नहीं। हमें कहीं भी नहीं जाना है। हम यहाँ जोधपुर में रहेंगे और रामभाऊ महाराज की आज्ञानुसार यहाँ पर कार्य करेंगे।”1

उपर्युक्त वृत्तान्त से एक ओर माताजी के Nature की निर्विवादित निर्लोभता सिद्ध होती है तो दूसरी ओर गुरू की आज्ञा की अनुपालना जीवन के सर्वोच्च शिखर पर दृष्टिगोचर होती है तथा तीसरी ओर परमार्थ के प्रति उनकी सच्ची अन्तर्निष्ठा के दर्शन होते है।

अतुल्य सेवा भाव

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माताजी (मालती बाई वि. दाते)

माताजी के Nature में जैसे निर्लोभता स्वाभाविक रूप से संस्थापित थी उसी भांति सेवा-भावना भी उनके जीवन में पूर्ण रूप से रची-पची थी। जो भी साधक दाते महाराज से मिलने जाते थे उनके लिए चाय के समय चाय और भोजन के समय भोजन बिना कहे उपलब्ध कर दिया जाता था। ऐसे अवसर भी कई बार देखने को मिले हैं जब दाते महाराज की इचछा हो जाने पर 78 वर्ष की वृद्धावस्था में माताजी द्वारा देर रात्रि में भी उठकर सबके लिए हलवा तक बनाकर सहर्ष प्रस्तुत कर दिया जाता था। ऐसे सेवा-भाव माताजी में जीवन के प्रारम्भ से ही थे। उनकी माँ अधिकतर बीमार रहती थी। छोटे-छोटे भाई-बहनों का खाना-नहाना-धोना माताजी बड़े प्यार से करती थी। माताजी की माँ जब अन्तिम समय में गंभीर बीमारी से ग्रासित थी तो दो वर्ष तक लगातार वहीं रहकर जिस मनोयोग से उनकी सेवा माताजी ने की थी वह अतुल्य ही थी। उस बीमारी अवस्था में उनकी माँ का मानसिक सन्तुलन भी ठीक नहीं रहता था जिसके कारण माती को रातभर जागरण करके उनकी पूरी देखभाल करनी पड़ती थी और दिन में सेवा-शुश्रूषा एवं पूरे घर का काम-काज आदि करना। इतना सब उन्होंने पूरी सेवा-भावना से सहर्ष किया। जब माताजी स्वयं अतिशय वृद्ध थीं तब भी दाते महाराज की जो सेवा-परिचर्या उन्होंने की थी वह अवर्णनीय और अलौकिक ही कही जाएगी। दाते महाराज अपने अन्तिम तीन वर्षों में ब्रह्मैक्य स्थिति में लीन और मौन ही रहते थे। उस समय वे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, थकान-आराम आदि इन सब से निर्लिप्त रहते थे। उस समय दाते महाराज को चाय-नाश्ता, भोजन आदि कराना अत्यन्त मुश्किल एवं श्रमसाध्य था। एक-एक घण्टे माताजी उनके पास पैरों पर खड़े रहकर एक-एक घूंट चाय-दूध एवं एक-एक कौर करके भोजन कह-कह कर आग्रहपूर्वक जिस सेवा-भाव से कराती थी वह अदृष्टपूर्व एवं अनुपम था जब कि माताजी स्वयं अतिशय वृद्ध थीं उनकी भी सेवा करने की जरूरत थी परन्तु वे कभी भी सेवा करवाना बर्दाश्त नहीं करती थीं। बिजली बन्द हो जाने पर पंखी द्वारा हवा भी किसी से नहीं करवाने देती थीं। स्वयं अपने हाथ से ही हवा कर लेती थीं। अश्रुतपूर्व उनका यह जीवन सिद्धान्त और अकल्पनीय उनका सेवा भाव था। अनेक भाग्यशाली साधकों ने यह सब कुछ भली-भांति अपनी आँखों से देखा है, समझा है।

विद्या-दान के प्रति अनुराग

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माताजी (मालती बाई वि. दाते)

माताजी ने अपने जीवन-साथी के वरण के अवसर पर वैभव के स्थान पर विद्वता को जो सर्वोच्च महत्व दिया था उससे उनका विद्या के प्रति अनुराग प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त हुआ था।

इसके अलावा जब दाते साहब इलाहाबाद में रानडे साहब के पास स्वाध्याय में व्यस्त रहते थे तब माताजी ने दाते साहब से अनुमति लेकर एक महाराष्ट्रीय विद्यालय में छोटे बच्चों को पढ़ाने का कार्य प्रारम्भ किया था। बच्चों को उत्तम शिक्षण प्रदान करने के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के सुसंस्कार डालने का गुरूतर दायित्व भी आपने बखूबी निभाया। एक बार ऐसे प्रोग्राम में मातजी ने गुरूदेव रामभाऊ महाराज को भी निमन्त्रित किया था उन्होंने इस छोटे से विद्यालय के मुख्य आतिथ्य को सहर्ष-स्वीकार किया और उस पूरे कार्यक्रम में वहाँ मौजूद रहे थे।

बच्चों को विद्या दान करने में माताजी की सदैव से रूचि रही है। जब दाते साहब प्रोफेसर बनकर जयपुर पधार गए तब जयपुर में भी बाबा पेंढारकर के घर में एक लघु विद्यालय संचालित किया जा रहा था वहाँ माताजी ने पढ़ाने की प्रमुख भूमिका अपने ऊपर ले रखी थी और रूचिपूर्वक शिक्षण कार्य करती रहीं थीं। इसमें उल्लेखनीय बात तो यह है कि दोनों ही स्थानों पर माताजी ने अवैतनिक रूप से शिक्षण कार्य किया। इतना ही नहीं बेलगाँव में एक अत्यन्त गरीब लड़के को दाते साहब ने पढ़ाने हेतु अपने घर पर ही रख लिया था। उस गरीब लड़के को माताजी ने अपने पुत्र-पुत्रियों के समान ही रहने-खाने-पीने- की सुख-सुविधा और शिक्षण सुविधा प्रदान की थी। वह जब मैट्रिक में आया तब दाते साहब जोधपुर जसवन्त कॉलेज में प्रोफेसर बन गए थे। उस समय दाते साहब अकेले जोधपुर पधारे। शेष पूरे परिवा को बेलगाँव में ही रखा। उसकी मेट्रिक की परीक्षा सम्पन्न हो जाने पर वहाँ का मकान छोड़ा। ऐसे उदाहरण आज की Commercial सोच प्रधान जीवन शैली में कहाँ देखने को मिलते है?

माताजी की अनन्य पारमार्थिक निष्ठा

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माताजी (मालती बाई वि. दाते)

माताजी का पूरा जीवन अनमोल गुणों की खान है। प्रापंचिक और पारमार्थिक दोनों ही क्षेत्रों के अछूते आदर्श उनके जीवन में सहज झलकते हैं। प्रपंच कैसे करना और उसमें परमार्थ कैसे हो सकता है यह महत्वपूर्ण सबक उनके जीवन में सरलतापूर्वक हृदयंगम किया जा सकता है। प्रपंच में सुखमय गृहस्थ जीवन के लिए पति-पत्नी दानों परस्पर एक-दूसरे के पूरक कैसे बन सकते हैं यह तथ्य माताजी स्वयं के निम्नांकित शब्दों में किता स्वाभाविक रूप से उजागर हुआ है – ‘‘मैं कभी भी कोई कार्य उनकी आज्ञा के बिना या उनकी इच्छा के विरुद्ध नहीं करती थी और वे सदैव मेरी राय लेकर कार्य करते थे। इस प्रकार हमारा जीवन एक-दूसरे का पूरक हो गया था।’’ गृहस्थ जीवन के इस सरल सिद्धान्त को अपनाकर कोई भी दम्पत्ति अपने जीवन को सुखी एवं शान्त बना सकता है।

प्रपंच और परमार्थ दोनों साथ-साथ करते हुए प्रपंच का पूर्ण पर्यावसान परमार्थ में किस प्रकार हो सकता है, इसका जीता-जागता नमूना माताजी का जीवन है। माताजी की प्रपंच से परमार्थ के सर्वोच्च शिखर तक की यात्रा एक ऐसा जीवन वृत्तान्त है जो हमारे लिए वरदान स्वरूप हो सकता है बशर्ते हम उसको भली भाँति समझें और अपने जीवन में अपनाएं।

मानव जीवन के सर्वोच्च प्राप्तव्य तक की उनकी सफल यात्रा का प्रमुख आधार था उनकी अपने गुरु एवं परमार्थ के प्रति अनन्य निष्ठा। गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा तभी बन पाती है जब अपने गुरु पर अडिग विश्वास कायम हो। गुरु पर प्रारम्भिक स्तर पर provisional faith रखने के लिए दाते महाराज सदैव कहा करते थे। फिर ज्यों ज्यों घटनाक्रम गुज़रता है त्यों त्यों संसार और परमार्थ दोनों में गुरु-कृपा की अनुभूतियां सफलता के रूप में होने लगती है तब उसका श्रेय स्वयं ले लेने के प्रमाद से स्वयं को बचाता हुआ जो व्यक्ति उसका श्रेय गुरु के चरणों पर समर्पित कर देता है और असली कर्त्ता सद्गुरु ही है ऐसी समझ (Understanding) ढोंग रहित रूप से अपने अन्तर्मन में विकसित कर देता है तब ही गुरु के प्रति ‘वास्तविक’ अनन्य निष्ठा जन्म लेती है यही सच्ची अन्तर्निष्ठा होती है जो बाह्य निष्ठा से बिल्कुल भिन्न होती है। बाह्य निष्ठा का संबंध मात्र दुनिया को दिखाने तक ही सीमित होता है जब कि सच्ची अन्तर्निष्ठा भक्त का गूढ़ प्राणतत्व होता है जिससे व्यक्ति में एक तरफ सकारात्मक सोच विकसित होती है, दूसरी और भक्ति भाव में अनन्यता और अनुपमता आती है तो तीसरी तरफ उस साधक के लिए गुरु-आज्ञा देव-आज्ञा एवं गुरु शब्द देव शब्द के रूप में जीवन में ढलने लगते है, जिससे भक्ति कि चरम शिखर की और उसकी तीव्रगामी प्रगति होने लग जाती है।

माताजी के जीवन में ऐसा ही अडिग विश्वास एवं ऐसी ही अनन्य अन्तर्निष्ठा पग-पग पर हमें देखने को मिलती है। उनके जीवन की एक विशेष घटना इसका बेजोड़ उदाहरण है। एक बार माताजी अत्यधिक बीमार हो गई। उनकी स्थिति गंभीर बनती गई। दो कदम चलना भी संभव नहीं रहा। डॉक्टरों ने जाँच की। बड़े डॉक्टर बनर्जी एक्स-रे आदि के आधार पर बताया कि फेफड़े खराब हो गए है। भारी मात्रा में उनमें कफ जम गया है इसलिए इनको शीघ्र बीकानेर भेजा जाएं जहां एक फेफड़ों से कफ बाहर खींचने का अत्याधुनिक उपकरण है। उससे शीघ्रतम कफ बाहर निकाला जाए। इसका जीवन खतरे में है। उसी शाम को माताजी को बीकानेर ले जाने की व्यवस्था की तैयारियाँ करने की जाने लगी। दाते महाराज ने कहा कि मालती बाई स्वयं से तो पूछ लीजिए। जब बीकानेर चलने के लिए उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कल सुबह बता दूँगी। रात्रि को स्वप्न में रानडे साहब के दर्शन हुए जिसमें रानडे साहब ने माताजी के शरीर पर हाथ फेरा। सुबह जब उनसे बीकानेर चलने के लिए पूछा गया तो उन्होंने कह दिया- ‘मुझे बीकानेर जाने की जरूरत नहीं है, मेरे सद्गुरु समर्थ हैं, वे ही मुझे स्वस्थ करेंगे।’ इस प्रकार बीकानेर जाना स्थगित हो गया। अपने गुरु पर ऐसा अटल विश्वास कहाँ देखने को मिलेगा। जिसका अपने सद्गुरु पर ऐसा अडिग विश्वास है उसके लिए गुरु असंभव को भी संभव कर देते हैं। माताजी को शनै:-शनै: स्वास्थ्य लाभ होता गया। रोज रात में उनको रानडे साहब के दर्शन होते रहें। बाद में जब उनका डॉ. बनर्जी ने वापस मेडिकल चेक-अप किया तो एक्स-रे आदि में कोई खराबी दृष्टिगोचर नहीं हुई। डॉक्टरों के आश्चर्य का ठिकाना भी नहीं रहा।

इस प्रकार 1975 में जब दाते साहब लगातार Blood vomiting से अत्यधिक गंभीर स्थिति में पहुँच गए थे। महात्मा गाँधी हॉस्पिटल, जोधपुर में उनका इलाज चल रहा था वहाँ वे अन्तिम स्थिति तक पहुँच गए थे। सभी उपस्थित साधक रोने लग गए थे। हॉस्पिटल से ऐसे चिन्ताजनक समाचार घर पर माताजी को लगातार मिल रहे थे फिर भी वे अपने गुरु पर अडिग विश्वास रखते हुए धैर्यपूर्वक नाम-स्मरण में मग्न थी। उधर हॉस्पिटल में दाते साहब का देवा देवा कहते हुए सिर ढुलक गया था सबने आशा छोड़ दी थी। ऐसी स्थिति में भी माताजी का विश्वास अपने गुरु की दया पर अडिग था। उसको उनके ही शब्दों में दर्शाना उचित रहेगा- “मैं घर पर ही थी और बार-बार महाराज से प्रार्थना कर रही थी, नाम-स्मरण बराबर चल रहा था और चिंता होते हुए भी महाराज की दया पर विश्वास बना हुआ था।” ऐसी भयंकर परिस्थितियों में भी गुरु की दया पर विश्वास ज्यों का त्यों बना रहना, गुरु के प्रति निष्ठा की अनन्यता कायम रहना और नाम स्मरण का धागा अटूट रहना कितना अभूतपूर्व है? ऐसी अभूतपूर्व अनन्य निष्ठा निष्फल कैसे हो सकती है? सद्गुरु के सामर्थ्य ने एक बार फिर डॉक्टर्स को दाँतों तले अंगुली दबाने को मजबूर किया। दाते महाराज के नब्ज धीमी गति से तत्काल ही धड़कने लग गई। धीरे-धीरे स्वस्थता की ओर उनके कदम बढ़े और दस दिन बाद हॉस्पिटल से उन्हें घर भेज दिया गया।

माताजी का अपने गुरु पर विश्वास और उनके प्रति उनकी निष्ठा अन्तिम क्षणों तक अडिग और अनन्य ही बनी रही। दाते महाराज ने 1986 में देह छोड़ दिया था। उनके दोनों  पुत्र अमरीका में और दोनों पुत्रियाँ महाराष्ट्र में थे। माताजी अतिशय हो गए थे। देहावस्था की अक्षम होती चली जा रही थी। ऐसी परिस्थिति में एकाकीपन या अकेलापन बोझा भी व्यक्ति को दबोच लेता है परन्तु इन विषम परिस्थितियों में भी माताजी का विश्वास और गुरु-निष्ठा अद्वितीय ही बनी रही जो कहीं भी देखने की बात तो दूर, सुनने को भी नहीं मिलती है। ऐसी परिस्थितियों में भी वे बहुत ही ठोस रूप में कहा करती थी कि ‘मुझे कहीं भी नहीं जाना है। मैं अकेली नहीं हूँ। भाऊसाहब महाराज, अम्बुराव महाराज, रामभाऊ महाराज और दाते साहब महाराज ये यहाँ पर साक्षात् विराजमान है न बाबा। मेरा पूरा रक्षण करने वाले ये बैठे हैं मुझे कोई चिंता नहीं और मेरी कोई इच्छा नहीं।’ जीवन के आरम्भ से लेकर अन्त तक अपने गुरु पर विपरीत परिस्थितियों में भी विश्वास और निष्ठा की ऐसी अनन्य प्रेरणा देने वाला अमर अजस्र स्रोत क्या माताजी का यह जीवन वृत्तान्त नहीं है?

भजन की अखण्डता

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माताजी (मालती बाई वि. दाते)

माताजी को अनुभव में श्री भाउसाहब महाराज ने 1926 में आज्ञा दी थी कि तुम नित्य भजन करो। उस दिन से लेकर जीवन के अन्तिम दिन तक माताजी ने भजन में कभी भी खण्ड पड़ने नहीं दिया। चाहे खुशी हो या ग़मी, चाहे नीरोगता हो या रूग्णता, चाहे घर हो या बाहर, कहीं भी, कभी भी काकड़-आरती एवं रात्रि के भजन आदि में अपवाद रूप से भी कभी चूक नहीं पड़ी, नित्य-नियमित रूप से किया। उनके बेटे-बेटियों के शादी-विवाहों में भी इनमें अनियमितता नहीं आने दी।

एक बार जोधपुर में उनके एक साढ़े तीन वर्ष के पुत्र की शाम को 5.00 बजे मृत्यु हो गई। उसका अन्तिम संस्कार करके लौटने के बाद सबने रात्रि के भजन विधिवत किए। ऐसी भयंकर दुःखद घटनाओं में भी निष्ठापूर्वक गुरु आज्ञा का पालन करने वाले विरले ही होते है। इसी प्रकार से एक बार दाते महाराज एवं माताजी परमार्थ सप्ताह के लिए फालना में श्रीमान शिवशंकर जी जोशी के यहाँ ठहरे हुए थे। वहाँ एक दिन प्रातः 3.00 बजे दाते साहब महाराज को Blood Vomiting शुरू हुई। जो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। डॉक्टर को उसी समय बुला लिया गया था चिकित्सा प्रारम्भ कर दी गई थी फिर भी Blood Vomiting जारी थी। माताजी सामने पाट पर बैठी हुई सब कुछ बड़े धैर्य से देख रही थी। उस समय जब प्रातः के साढ़े पाँच बजे तब माताजी ने कहा काकड़ आरती सब लोग शुरू करें। ऐसा कहकर उन्होंने स्वयं ने काकड़ आरती बोलना शुरू कर दिया। उधर दाते साहब की Blood Vomiting जारी थी। उस समय अनेक साधकों ने वहाँ पर नित्य भजनो के प्रति इस अटूट निष्ठा को अपनी आँखों से देखा है।

माताजी का जीवन असाधारण भक्तिभाव का जगमगाता ज्योतिपुंज है। सन् 1986 में जब दाते साहब महाराज ने देह छोड़ा था तब जोधपुर में माताजी बिल्कुल अकेली थी। उनके पुत्र-पुत्रियों में से उस समय कोई नहीं था। उस अतिशय वृद्ध अवस्था में माताजी के लिए इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है? इस भयंकर आघात को भी उन्होंने जिस धैर्य से झेला वह सभी चमत्कारी साधकों के लिए अविस्मरणीय है। सब को अश्रुधारा बह रही थी। विलाप और करुण क्रन्दन पूरे घर में व्याप्त था परन्तु माताजी पूर्ण गम्भीरता के साथ ‘धैयाचा याचा डोंगर’ की भाँति मौन और अविचलित थी। इतना ही नहीं जरूरत पड़ने पर अत्यधिक विलाप करने वालों को धैर्य भी प्रदान कर रहीं थीं। जब सभी अन्तिम संस्कार करके लौटे तब माताजी ने शान्त किन्तु गम्भीर वाणी में रात्रि के भजन शुरू करने के लिए कहा। सभी ने उस दिन अश्रुपूरित भजन किए। मृत्यु जैसे भयंकर आघातों में भी भक्तिभाव एवं भजन की अखण्डता का ऐसा अद्भुत आदर्श त्रिलोक में भी अलभ्य है।

अटूट नाम स्मरण

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माताजी (मालती बाई वि. दाते)

अपने सद्गुरुनाथ श्री अम्बुराव महाराज की आज्ञानुसार माताजी चलते फिरते नानाविध काम-काज करते हुए नाम-स्मरण तो करते ही थे साथ में पूरे दिन संत एकनाथ, ज्ञानदेव, रामदास एवं तुकाराम आदि के भजन भी भावपूर्वक मधुर स्वर में गाते रहते थे। रसोई में भी सब्जी आदि काटते समय और भोजन बनाते समय भक्तिपूर्ण भजनों की मधुर स्वर-लहरों से पूरा घर गूंजता रहता था। पूरे घर का वातावरण बड़ा ही दिव्य और अलौकिक बन जाता था।

इस दिनचर्या के अलावा गृहस्थ जीवन के प्रारम्भ से ही माताजी दाते साहब के साथ बैठकर नेम (ध्यान) भी करते थे। यथासमय निर्धारित नेम करने का नियम भी उनका निरपवाद नियमित रूप से पक्का हो गया था। उन्होंने ‘गुरुकृपा-प्रसाद: मेरा जीवन वृत्त’ में एक स्थान पर लिखा है – “जब वे नेम में बैठते थे तो मैं भी नेम में बैठती थी और इस प्रकार मेरा भी नेम का अभ्यास निरंतर बढ़ता गया और एक समय मेरे जीवन में ऐसा आ गया जब वे नेम में बैठे चाहे नहीं, मैं अपना नेम बैठकर जरूर करती।” इस उद्धरण से यह तो भली भांति विदित हो गया कि माताजी का नेम निरपवाद और नियमित चलता था। इसके अलावा चलते-फिरते काम करते नाम-स्मरण करना और भजन गाना तो उनके जीवन का अभिन्न अंग बन चुका था जिसके सुप्रभाव से उनको सांसारिक कार्यों में अरुचि पैदा होने लग गई और वे इस मायाजाल से बहुत ऊपर उठते गए। इस परिवर्तन को दर्शानेवाले दो उद्धरणों को प्रस्तुत करना यहाँ उचित रहेगा। स्वयं माताजी ने अपनी इस स्थिति के लिए लिखा है कि- “मेरा नाम स्मरण उत्तम और अधिकाधिक समय के लिए होता गया और सांसारिक या प्रपंचिक कार्यों में अरुचि बढ़ती गई। जिसकी सांसारिक कार्यों में सर्वथा अरुचि होने लग जाए तो उसे मायाजाल स्पर्श भी कैसे कर सकता है? इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्र्ण वृत्तान्त अप्रकाशित है। दाते साहब महाराज और माताजी महाराज दोनों 1978 में अपने दोनों पुत्रों से मिलने के लिए अमेरिका पधारे हुए थे। वे वहाँ अपने छोटे पुत्र श्रीमान् रघुनाथजी वि. दाते के घर पर ठहरे हुए थे। वहाँ बातचीत के दौरान एक बार दाते साहब महाराज ने एकदम कहा- ”अब मायाजाल हमें स्पर्श नहीं कर सकता।” इतना कहने के तुरंत बाद उन्होंने माताजी की और इशारा करके कहा- ‘ये और भी आगे पहुँची हैं।’ इनके अलावा दाते साहब महाराज ने अनेक बार जोधपुर में भी माताजी के बारे में उनकी ओर इशारा करके कहा था कि ‘बाबा इनका तो चौबीस घट्टे नाम चलता है।’ इन वृत्तान्तों से यह तथ्य भली भाँति उजागर हो जाता है कि माताजी का नाम-स्मरण अटूट चलता था।

चाहे भयंकर बीमारी से देह ग्रसित हो जाए तब भी माताजी का नाम स्मरण खंडित नहीं होता था, बन्द नहीं होता था। 63 जसवंत सराय जोधपुर में रहने वाले अनेक साधकों ने माताजी के नाम स्मरण की निरन्तरता और अखण्डता की अनुभूति स्वयं अपनी आँखों से प्रत्यक्ष रूप में की है। दिन हो या रात उनका नाम स्मरण चलता ही रहता था। एक बार दाते साहब ने कहा था कि- ‘बातचीत के समय भी मालती बाई का नाम नहीं रुकता है। इनके जितना कोई भी अभ्यास करे तो उसका नाम भी बातचीत के समय नहीं रुकेगा।’ माताजी तो बीमारावस्था में भी उसी ढंग से नाम में मनन रहती थी। एक बार वे बीमार थी। देह में बहुत कमजोरी और कष्ट पीड़ा थी फिर भी उनका नाम स्मरण बराबर चल रहा था। इस संबंध में एक स्थान पर उन्होंने लिखा है कि ”इस बीमारी की अवधि में मेरा नाम स्मरण अखण्ड चल रहा था। मैं बराबर नाम स्मरण करती थी और मुझे विश्वास हो गया था कि नाम-स्मरण ही मेरी बीमारी का इलाज है।”

इतना ही नहीं जब दाते साहब महाराज का 1986 में निधन हुआ था तब भी उनका धैर्य एवं नामस्मरण खण्डित नहीं हुआ। उस भीषण आघातकारी क्षणों में उनकी स्थिति को उनके ही शब्दों में देखना उचित रहेगा- ”महाराज की दया से मुझ में अद्भुत धैर्य आ गया। मैं न घबराई और न ही रोई। यदि मैं ही रोने लग जाती तो इन सब साधकों को धैर्य कौन बाँधता? मैंने अत्यन्त दृढ़ता से काम लिया, मन में सतत् महाराज का स्मरण नाम स्मरण चल रहा था।” इस स्थिति को स्वयं साधकों ने अपने समक्ष प्रत्यक्ष देखा है। सन्तों के भी मानवीय हृदय होता है उसमें भी भावों का ज्वार उठता है। उस दिन रात के अंधेरे में जब सब सो गए थे तब एकान्त में माताजी की अविरल अश्रुधारा बह चली थी यह तथ्य केवल वे चन्द साधक ही जानते थे जो जल-सेवार्थ उनके पास थे।

सारांश रूप में कहा जा सकता है कि चाहे सुख हो या दुःख, चाहे आनन्द हो या आघात, चाहे शादी हो या संकट, चाहे निराहारी हो या बीमारी, चाहे जन्म हो या मृत्यु माताजी के भजन और नाम स्मरण सदैव अखण्डित रहे ऐसी अनन्य भक्ति की विवेचना बिचारे बेबस शब्दों द्वारा कैसे संभव है?

गुरु के रूप में माताजी का कर्तृत्व

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माताजी (मालती बाई वि. दाते)

माताजी को केवल दाते साहब महाराज की धर्मपत्नी के रूप तक सीमित रखकर या एक संत रूप तक सीमित रख करके जानना उनके व्यक्तित्व का सम्यक विवेचन नहीं होगा। 22 अप्रैल 1986 को दाते महाराज ब्रह्मलीन हुए थेअगस्त 1994 को माताजी ने देह छोड़ा था। 1986 से 1994 तक की अवधि में साधकों के उद्धार के लिए माताजी की भूमिका सद्गुरु के रूप में ही रही थी यद्यपि उनके सामने उनको गुरु कहने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी और न ही उन्होंने या दाते महाराज ने स्वयं को गुरु रूप में अभिव्यक्त किया। दाते महाराज या माताजी अपने लिए गुरु रूप में सम्बोधन करने को पसन्द करना तो दूर कभी बर्दाश्त भी नहीं करते थे। इतना सब कुछ होने पर भी साधकों और शरणागतों के संसार एवं परमार्थ में प्रगति का दायित्व वे ही वहन करते थे, ये सारा बोझा तो वे ही उठाते थे, संकट की घड़ियों में रक्षा और संरक्षण वे ही करते थे, भटके हुओं को सही राह पर वे लाते थे। इतना ही नहीं जो सुपात्र होते थे उनको परमार्थ-स्वरूप के प्रत्यक्ष दर्शन भी वे ही कराते थे। इसलिए दाते महाराज और उनके महाप्रयाण के बाद से माताजी निर्विवाद रूप से हम साधकों के सद्गुरु रहे हैं।

यहाँ पर कुछ साधक-साधिकाओं के अनुभवों का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा जिसमें माताजी का गुरु रूप स्वयं अभिव्यक्त होता है। एक साधिका ने स्वप्न में देखा कि श्वेत धोती और श्वेत कमीज पहने हुए दाते महाराज श्वेत कपडे़ के एक उत्तम आसन पर विराजमान हैं वैसा ही श्वेत कपड़े का स्वच्छ उत्तम आसन उनके बिलकुल पास में लगा हुआ है। इतने में दाते महाराज बोले इस आसन पर आकर वही व्यक्ति बैठ सकता है जो भक्ति में मेरे बराबर होगा। साधिका ने मन में कहा कि भक्ति में दाते महाराज के बराबर तो यहाँ कोई है ही नहीं इसलिए यह आसन तो खाली ही रहेगा तभी उसने देखा कि सामने से माताजी पधार रहे हैं और मुख पर पूरी गंभीरता धारण किए हुए उस आसन पर विराजमान हो गई। दाते महाराज हल्के से मुस्करा रहे थे। यह अनुभव यहाँ पुण्यतिथि महोत्सव पर एक बार प्रस्तुत किया गया था। इस अनुभव में पहली बार सद्गुरु दाते महाराज के साथ माताजी की भी गुरु रूप सुभारित हुआ था।

इसी क्रम में एक साधक ने भी एक अन्य Sunday programme में 1992 में यह एक बार अपना अनुभव सुनाया था कि वह P.F. Ring Malaria से भयंकर पीड़ित हो गया था। मलेरिया बहुत बिगड़़ा हुआ मस्तिष्क ज्वर में बदल गया। ऐसी भयंकर स्थिति उस साधक की हो गई कि उसे देखना-सुनना आदि भी बन्द होने के तुल्य हो गए। खून की भारी कमी हो गई। डॉक्टरों ने उसके जीवन को खतरे में बता दिया था। जैसे ही इस स्थिति के समाचार माताजी को प्राप्त हुए तो उन्होंने जोधपुर से उसी समय एक व्यक्ति को अंगारा और एक सेब सन्देश रवाना किया। जोधपुर से 150 किलोमीटर की यात्रा करके वह व्यक्ति राति के 1.00 बजे बीमार साधक के घर पहुँचा। माताजी के निर्देशानुसार उस व्यक्ति ने घर पहुँचते ही साधक के अंगारा लगाया, थोड़ा अंगारा मुँह में डाला और वह सेव उसी समय खिलाई। बीमार साधक को आश्चर्य हुआ कि आप जोधपुर से रातोंरात कैसे आए तब उस व्यक्ति ने बताया मुझे माताजी ने कहा कि एक क्षण भी नष्ट किए बिना आप उसी समय वहाँ जाओ। दूसरे दिन सुबह से ही बीमार साधक के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार होने लग गया। डॉक्टरों ने भी अपने इस मरीज की आशा छोड़ दी थी। वह शनै:-शनै: सप्ताह भर में पूर्ण स्वास्थ्य हो गया। इस विवेचना से पाठक यह भली-भांति समझ गए होंगे कि गुरु रूप में माताजी किस प्रकार रक्षण संरक्षण करते थे। इसमें एक उल्लेखनीय बात यह और है कि उस बीमार साधक को बाद में 63 जसवंत सराय जोधपुर में रहने वाले एक प्रमुख साधक ने यह बताया कि जिस शाम को आपके लिए अंगारा देकर व्यक्ति भेजा था उस दिन माताजी ने यहाँ पाट पर बैठे-बैठे नाम स्मरण करते हुए उस पूरी रात जागरण किया एक क्षण को भी विश्राम नहीं किया ऐसी वृद्धावस्था में भी।

दाते महाराज के निर्वाण के बाद उनकी समाधि से माताजी को परमेश्वर के अनेक नाम सुनाई देने लगे। लम्बे समय तक अनेक दिव्य नाम का अनहद नाद समाधि से माताजी को सुनाई देता रहा। वे वहाँ रूकने वाले साधकों को ये अनुभूतियाँ सुनाती रहती थी। इसके अलावा जब जब माताजी को दाते महाराज की तीव्र याद आती थी तब तब उनको दाते महाराज के दर्शन हो जाते थे। इन सब अनुभवों के आधार पर माताजी को लगा कि दाते महाराज गए नहीं है उनका यहाँ वास्तव्य है। इसके बाद से माताजी ने जोधपुर में दाते महाराज की समाधि पर नवीन साधकों को नाम लेने की अनुमति प्रदान कर दी। तब से अब तक अनेक साधकों ने दाते महाराज की समाधि पर नाम लिया। इतना ही नहीं अत्याधिक जिज्ञासु और भावुक कई साधकों को तो स्वप्न में माताजी स्वयं ने भी नाम दिया। समाधि पर या स्वप्न में जिनको भी नाम मिला और जिसने भी नियमित नेम-साधन किया उन सबको उच्च कोटि के पारमार्थिक अनुभवों का अलभ्य लाभ हुआ।

गुरु रूप में पूज्या माताजी के सामर्थ्य की विविध अनुभूतियों के क्रम में एक और साधक के अनुभव का उल्लेख करना भी महत्वपूर्ण होगा क्योंकि उस अनुभव में माताजी के समर्थ गुरु रूप के उदात्त दर्शन होते है। यह वृत्तान्त 1987 का है जो निम्नांकित रूप में दर्शनीय है:-

माताजी- मेरी यह बहुत पुरानी शिवलीलामृत पुस्तक है। मैं इसका लगभग 60 वर्ष से पाठ कर रही हूँ। इसे मैं तुम्हें देती हूँ। तुम इसका पाठ करना शुरू करो। साधक- माताजी, प्रारम्भ से ही मेरी आस्था तो श्रीराम में ही है। शिव में मेरी तनिक भी आस्था नहीं है। माताजी- अरे बाबा, राम और शिव में कोई अन्तर नहीं है। दोनों एक ही है। साधक- (अनमने मन से) जी! (फिर मौन) माताजी- तुम तो शिवलीलामृत का पाठ शुरू करो। बाद में तुम्हें यह अनुभव हो जाएगा कि राम और शिव दोनों अभेद है। साधक- जी! (शिवलीलामृत ग्रन्थ को ग्रहण कर लिया)

उस दिन के बाद से उसने शिवलीलामृत का पाठ नियमित शुरू कर दिया। कालान्तर में उसे एक स्वप्न आया जिसमें उसने शिव को बाल रूप में धरती पर ही सोते हुए देखा। उनके गले में साँप लिपटा हुआ था और पास में त्रिशूल रखा हुआ था। साधक को आश्चर्य हुआ कि शिवजी के बाल रूप का ऐसा चित्र आज दिन तक उसके देखन में नहीं आया था उसे बड़ा विचित्र लगा। उसने फिर भी सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। प्रणाम करके जैसे ही वह स्थिर दृष्टि से उन्हें देखने लगा तो उनमें कुछ परिवर्तन सा होता हुआ दिखने लगा और देखते-देखते ही गले का साँप सुन्दर माला में बदल गया। सिर की जटाएँ छोटे से ताज में बदल गई और त्रिशूल भी धनुष में शनै:-शनै: बदल गया। इस प्रकार देखते-देखते वही बालरूप शिव अब श्रीराम के बालरूप में दृष्टिगोचर हुआ।

इस स्वप्नानुभव को बाद में उसने माताजी को सुनाया। उन्हें बहुत आनंद हुआ और उन्होंने कहा- अरे बाबा, मैं अनुभव के आधार पर ही शिवलीला पढ़ती हूँ। अब तो तुम्हें समझ में आ गया न कि शिव और राम एक ही है और सुनो यदि तुम एक निष्ठ भाव से राम-नाम का स्मरण करोगे तो तुम्हें राम-नाम से शिवरूप दिखाई देगा।

साधक- जी! (साश्चर्य) राम नाम स्मरण करने से शिव रूप दिखेगा देगा राम रूप नहीं।

माताजी- अरे बाबा! राम और शिव रूप ही नहीं, अनेक रूप दिखाए देंगे।

हाँ, तुम धैर्य रखो। प्रातः तीन बजे उठो और नेम में रोज बैठो! तुम्हें ध्यान में भी राम और शिव की अभेदता देखने को मिल जाएगी।

साधक- (कृतज्ञतापूर्वक) जी माताजी।

उस साधक ने माताजी की आज्ञानुसार नेम करने का पक्का नियम बना लिया। समय गुजरता गया। उसका नेम उत्तमोतम होता गया। कालान्तर में एक दिन जब वह नेम में बैठा था तो उसे ध्यान में राम रूप और बाद में वही शिव रूप में अनुभव गोचर हुआ। वह अपलक देखता रहा। उसके चर्म-चक्षु तो खुले ही थे परन्तु सद्गुरु समर्थ माताजी महाराज ने कृपा करके उसके अन्तः चक्षु भी खोल दिए। समर्थ सद्गुरु के शब्द अक्षरशः चरितार्थ कैसे होते हैं? यह उसको समझ में आ गया। सम्पूर्ण पारमार्थिक सृष्टि के सृजनहार ऐसे सद्गुरु ही होते है। चाहे उनका देह रहे या न रहे। उनकी सत्ता और सामर्थ्य अलौलिक है, उनकी सत्ता और सामर्थ्य अलौलिक है, अमिट है, अमर है। ऐसे ही है हमारे सद्गुरु माताजी महाराज।

चाहे प्रपंच हो या परमार्थ माताजी महाराज का पूरा जीवन सभी दृष्टिकोणों से अतुल्य है, अनुपम है। प्रपंच में भी देखा जाए तो बेरोजगार एवं बेघरबार स्थिति में भी अपने आत्म-सम्मान के लिए श्रीमन्त पिता के घर का सहज त्याग करने वाला माताजी के अलावा और कौन हो सकता है?

अतिशय वृद्ध, एकाकी और अक्षम जीवन में भी अपने गुरु के प्रति आस्था का अमरदीप जगमगाए रखने वाला माताजी के अलावा और कौन हो सकता है?

जीवन की भयंकर विषम परिस्थितियों के तूफान में भी भक्ति का चिराग निष्कम्प जलाए रखनेवाला माताजी के अलावा और कौन हो सकता है?

चाहे रहने के लिए घर मिले या न मिले, चाहे खाने के लिए रोटी मिले या न मिले, चाहे मौत का भयंकर वज्रपात टले या न टले फिर भी भक्ति की अखण्ड अमर ज्योति जलाए रखने वाला माताजी के अलावा और कौन हो सकता है?

परमार्थ-पथ के आरम्भ से लेकर आखिर तक साधकों को भक्ति-सुधा पिलाकर उनका रक्षण संरक्षण करने वाली ऋषि रूप युगल जोड़ी दाते साहब एवं माताजी के अलावा और कौन हो सकती है?

उनके युगल चरणों पर कोटि-कोटि ‘नमन’।

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